भूपेन्द्र कुमार लक्ष्मी
सुप्रीमकोर्ट: CRPC की धारा 156(3) के तहत दिए जाने वालें प्रार्थना पत्रों साथ शपथ-पत्र लगाना आवश्यक कर दिया है। शपथ-पत्र नहीं होने की स्थिति में मजिस्ट्रेट शिकायत पर संज्ञान नहीं लेंगे।
CRPC की धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट की अदालत में यह प्रार्थना पत्र तभी दिया जाता है जब थाना पुलिस किसी अपराध में एफआईआर दर्ज करने से मना कर देती है। इस प्रार्थना पत्र पर संज्ञान लेकर अदालत पुलिस को जांच करने का आदेश देती है, जिसके बाद पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी पड़ती है।
सुप्रीमकोर्ट ने यह आदेश एक फैसले में दिया और धारा 156(3) के तहत दायर प्रार्थना पत्र के आधार पर कर्नाटक में दर्ज दो एफआईआर को निरस्त कर दिया। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और कृष्ण मुरारी की पीठ ने आदेश में कहा कि धारा 156(3) के प्रार्थना पत्र के साथ शपथ-पत्र लगाने के साथ ही याचिकाकर्ता को यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसने धारा 154(1) (थाने में शिकायत देना) और उसके बाद धारा 154(3) (थाने में शिकायत नहीं लेने पर पुलिस अधीक्षक के पास शिकायत) के प्रावधानों का उपयोग कर लिया है। इन तीनों शर्तों के मौजूद होने के बाद ही मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के प्रार्थनापत्रों पर सुनवाई करेंगे।
शीर्ष अदालत ने ये बंदिशें धारा 156(3) के प्रार्थनापत्रों के दुरुपयोग के कारण लगाई है। अदालत ने कहा कि 154(1) और 154(3) का उपयोग किए बिना सीधे अदालत में चले जाने से दिक्कतें आ रही हैं। क्योंकि कई बार दीवानी प्रकृति के मामलों में भी 156(3) के प्रार्थनापत्रों के आधार पर आपराधिक कार्यवाही का आदेश दे दिया जाता है। लेकिन जांच में पता चलता है कि मामला अपराधिक नहीं था और झूठा था। इससे आरोपी की प्रतिष्ठा को नुकसान तो होता ही है साथ ही पुलिस पर भी अनावश्यक दबाव आता है।
यदि प्रार्थनापत्रों के साथ शपथ-पत्र हो तो ऐसे में शिकायतकर्ता की जिम्मेदारी तय की जा सकती है और उस पर सीआरपीसी की धारा 340 के तहत अदालत में झूठ बोलने और झूठे प्रपत्र दायर करने का मुकदमा चलाया जा सकता है। इस अपराध में दंडित होने पर सात साल की सजा दी जा सकती हैं। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शपथ-पत्र ऐसे लोगों को भयभीत करेगा, जो किसी को परेशान करने के लिए 156(3) के प्रार्थना पत्र देकर आपराधिक रिपोर्ट दर्ज करवा देते हैं।