श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर में कल का दिन ऐतिहासिक रहा है। तीन दशकों के प्रतिबंध के बाद पैगम्बर मुहम्मद के पोते हज़रत इमाम हुसैन की जय-जयकार के बीच, सीना ठोककर और हज़रत इमाम हुसैन को याद करते हुए मुहर्रम का जुलूस निकाला गया।
शिया समुदाय के द्वारा निकाले गए जुलूस में सैकड़ों लोगों ने भाग लिया। सभी ने काले कपड़े पहने हुए थे। न कोई राजनीतिक नारा गूंजा, न किसी ने आजादी समर्थक या राष्ट्रविरोधी नारेबाजी की। अलगाववादियों के झंडे और पोस्टर भी कहीं नजर नहीं आए। पूरी तरह शांति व धार्मिक श्रद्धा के साथ जुलूस निकाला गया।
प्रशासन ने जुलूस निकालने के लिए सुबह छह से आठ बजे तक का समय निर्धारित किया था, लेकिन श्रद्धालुओं की संख्या और स्थिति को देखते हुए इसे 11 बजे तक की अनुमति दी गई। वहीं, मुहर्रम के जुलूस पर पारंपरिक मार्ग से प्रतिबंध हटाने पर कश्मीर के लोगों ने प्रशासन की जमकर सराहना की।
इन मार्गों से निकाला गया जुलूस
कश्मीर में सबसे बड़े जुलूसों में से एक मुहर्रम का यह जुलूस जहांगीर चौक, बडशाह चौक, सेंट्रल टेलीग्राफ कार्यालय, मौलाना आजाद रोड से होते हुए शांतिपूर्वक गुजरा और डलगेट में जाकर संपन्न हुआ। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के निर्देश पर प्रदेश प्रशासन ने साल 1988 के बाद पहली बार मुहर्रम का ताजिया श्रीनगर में सिविल सचिवालय के पास गुरु बाजार से सिविल लाइंस की ओर से डलगेट तक अपने पारंपरिक मार्ग पर निकालने की अनुमति दी।
जुलूस निकालने के लिए ये रखी गई थी शर्त
प्रशासन ने जुलूस की आयोजक यादगार-ए-हुसैन कमेटी के समक्ष पहले ही शर्त रखी थी कि इस दौरान कोई राजनीति या राष्ट्रविरोधी नारेबाजी नहीं होनी चाहिए। इसका जुलूस में असर भी दिखा। जुलूस में श्रीनगर के जिला उपायुक्त मोहम्मद एजाज भी शामिल हुए।
कश्मीर के एडीजीपी विजय कुमार और श्रीनगर के एसएसपी राकेश बलवाल समेत कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी सुरक्षा प्रबंधों का जायजा लेते नजर आए।
क्यों लगाया गया था मुहर्रम के जुलूस पर प्रतिबंध?
कश्मीर में साल 1988 के बाद आठ मुहर्रम जुलूस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। साल 1989 में मुहर्रम के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन तानाशाह राष्ट्रपति जिया उल हक की मौत के कारण कश्मीर में हालात को देखते हुए आठ मुहर्रम का जुलूस नहीं निकालने दिया गया था।
1990 में आतंकी हिंसा और अलगाववाद का दौर शुरू हो गया। जुलूस में शिया श्रद्धालुओं के बजाय आतंकी संगठन जेकेएलएफ और हुर्रियत के पूर्व चेयरमैन मौलवी अब्बास अंसारी के समर्थक ही ज्यादा होते थे। जुलूस में सांप्रदायिक हिंसा भी शुरू हो गई।
जुलूस की आड़ में होती थी अलगाववादी सियासत
मुहर्रम के जुलूस की आड़ में होने वाली अलगाववादी सियासत पर रोक लगाने के लिए प्रशासन ने लालचौक और उसके साथ सटे इलाकों में जुलूस पर रोक लगा दी। इसके बावजूद जेकेएलएफ और अंसारी के समर्थक उत्तेजक नारेबाजी करते हुए जबरन जुलूस निकालते और उनकी पुलिस के साथ हिंसक झड़पें होती थी।
हिंसा के बढ़ती घटनाओं को देखते हुए मुहर्रम के जुलूस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। साल 1988 तक आठ मुहर्रम का जुलूस गुरु बाजार से शुरू होकर हरि सिंह हाई स्ट्रीट, लाल चौक, बरबरशाह, नवापोरा और खानयार से गुजरते हुए हसनाबाद के इमामबाड़ा में संपन्न होता था।
बाद में इसका मार्ग बदलकर एमए रोड होते हुए अंजुमन-ए-हैदरिया डलगेट तक सीमित कर दिया गया था। वहीं, अब 34 साल बाद वहां पर हालात बदले और शांतिपूर्वक जुलूस निकाला गया। लोगों ने प्रशासन की तारीफ की।
आतंकी हिंसा व अलगाववाद का दौर हुआ समाप्त
उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने कहा कि आज कश्मीर में शिया भाइयों के लिए ऐतिहासिक दिन है। 34 वर्ष बाद पारंपरिक मार्ग गुरु बाजार से डलगेट तक मुहर्रम का जुलूस निकाला गया है, क्योंकि कश्मीर में अब आतंकी हिंसा व अलगाववाद का दौर समाप्त हो चुका है, धर्म के नाम पर कश्मीर को तबाह करने में जुटी ताकतें विफल हो चुकी हैं।
यह प्रदेश में सामान्य स्थिति का प्रमाण है। बीते कुछ वर्षों में लिए गए ऐतिहासिक निर्णय के कारण आज क्षितिज पर एक शांतिपूर्ण जम्मू-कश्मीर उभरा है। ‘मैं करबला के शहीदों को नमन करता हूं। मैं शिया भाइयों को आश्वासन देता हूं कि प्रशासन हमेशा उनके साथ खड़ा रहेगा।’
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम?
इस्लाम धर्म के लिए मुहर्रम की खास महत्व है। इस्लाम धर्म के नए साल की शुरुआत मुहर्रम के महीने से होती है। इसे हिजरी भी कहा जाता है। मुहर्रम मानने के पीछे धार्मिक मान्यता है कि हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मातम का पर्व मुहर्रम मनाया जाता है। इस दिन हजरत इमाम हुसैन के अनुयायी खुद को तकलीफ देकर इमाम हुसैन की याद में मातम मनाते हैं।
उनकी शहादत की याद में शिया लोग मुहर्रम मनाते हैं। इमाम हुसैन, पैगंबर मोहम्मद के नाती थे, जो कर्बला की जंग में शहीद माने हुए थे।इस्लामिक मान्यता के मुताबिक, सन 61 हिजरी (680 ईस्वी) में इराक के कर्बला में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ कर्बला के मैदान में शहीद हो गए थे।